Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


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मेहता जी ने घड़े को ठोका -- मुझे सन्देह है कि हमारे सभापतिजी स्वयम् खान-पान की एकता में विश्वास नहीं रखते हैं। ओंकारनाथ का चेहरा जर्द पड़ गया। इस बदमाश ने यह क्या बेवक्त की शहनाई बजा दी। दुष्ट कहीं गड़े मुर्दे न उखाड़ने लगे, नहीं, यह सारा सौभाग्य स्वप्न की भाँति शून्य में विलीन हो जायगा। मिस मालती ने उनके मुँह की ओर जिज्ञासा की दृष्टि से देखकर दृढ़ता से कहा -- आपका सन्देह निराधार है मेहता महोदय! क्या आप समझते हैं कि राष्ट्र की एकता का ऐसा अनन्य उपासक, ऐसा उदारचेता पुरुष, ऐसा रसिक कवि इस निरर्थक और लज्जा-जनक भेद को मान्य समझेगा? ऐसी शंका करना उसकी राष्ट्रीयता का अपमान करना है। ओंकारनाथ का मुख-मंडल प्रदीप्त हो गया। प्रसन्नता और सन्तोष की आभा झलक पड़ी। मालती ने उसी स्वर में कहा -- और इससे भी अधिक उनकी पुरुष-भावना का। एक रमणी के हाथों से शराब का प्याला पाकर वह कौन भद्र पुरुष है जो इनकार कर दे? यह तो नारी-जाति का अपमान होगा, उस नारी-जाति का जिसके नयन-बाणों से अपने ह्ृदय को बिन्धवाने की लालसा पुरुष-मात्र में होती है, जिसकी अदाओं पर मर-मिटने के लिए बड़े-बड़े महीप लालायित रहते हैं। लाइए, बोतल और प्याले, और दौर चलने दीजिए। इस महान् अवसर पर किसी तरह की शंका, किसी तरह की आपित्त राष्ट्र-द्रोह से कम नहीं। पहले हम अपने सभापति की सेहत का जाम पीयेंगे। बर्फ़, शराब और सोडा पहले ही से तैयार था। मालती ने ओंकारनाथ को अपने हाथों से लाल विष से भरा हुआ ग्लास दिया, और उन्हें कुछ ऐसी जादू-भरी चितवन से देखा कि उनकी सारी निष्ठा, सारी वणर्-श्रेष्ठता काफ़ूर हो गयी। मन ने कहा -- सारा आचार-विचार परिस्थितियों के अधीन है। आज तुम दरिद्र हो, किसी मोटरकार को धूल उड़ाते देखते हो, तो ऐसा बिगड़ते हो कि उसे पत्थरों से चूर-चूर कर दो; लेकिन क्या तुम्हारे मन में कार की लालसा नहीं है? परिस्थिति ही विधि है और कुछ नहीं। बाप-दादों ने नहीं पी थी, न पी हो। उन्हें ऐसा अवसर ही कब मिला था। उनकी जीविका पोथी-पत्रों पर थी। शराब लाते कहाँ से, और पीते भी तो जाते कहाँ? फिर वह तो रेलगाड़ी पर न चढ़ते थे, कल का पानी न पीते थे, अँग्रेज़ी पढ़ना पाप समझते थे। समय कितना बदल गया है। समय के साथ अगर नहीं चल सकते, तो वह तुम्हें पीछे छोड़कर चला जायगा। ऐसी महिला के कोमल हाथों से विष भी मिले, तो शिरोधार्य करना चाहिये। जिस सौभाग्य के लिए बड़े-बड़े राजे तरसते हैं; वह आज उनके सामने खड़ा है। क्या वह उसे ठुकरा सकते हैं? उन्होंने ग्लास ले लिया और सिर झुकाकर अपनी कृतज्ञता दिखाते हुए एक ही साँस में पी गये और तब लोगों को गर्व भरी आँखों से देखा, मानो कह रहे हों, अब तो आपको मुझ पर विश्वास आया। क्या समझते हैं, मैं निरा पोंगा पिण्डत हूँ। अब तो मुझे दम्भी और पाखंडी कहने का साहस नहीं कर सकते? हाल में ऐसा शोर गुल मचा कि कुछ न पूछो, जैसे पिटारे में बन्द गहगहे निकल पड़े हों। वाह देवीजी! क्या कहना है! कमाल है मिस मालती, कमाल है। तोड़ दिया, नमक का क़ानून तोड़ दिया, धर्म का क़िला तोड़ दिया, नेम का घड़ा फोड़ दिया! ओंकारनाथ के कंठ के नीचे शराब का पहुँचना था कि उनकी रसिकता वाचाल हो गयी। मुस्कराकर बोले -- मैंने अपने धर्म की थाती मिस मालती के कोमल हाथों में सौंप दी और मुझे विश्वास है, वह उसकी यथोचित रक्षा करेंगी। उनके चरण-कमलों के इस प्रसाद पर मैं ऐसे एक हज़ार धर्मो को न्योछावर कर सकता हूँ। क़हक़हों से हाल गूँज उठा। सम्पादकजी का चेहरा फूल उठा था, आँखें झुकी पड़ती थीं। दूसरा ग्लास भरकर बोले -- यह मिस मालती की सेहत का जाम है। आप लोग पियें और उन्हें आशीवार्द दें। लोगों ने फिर अपने-अपने ग्लास ख़ाली कर दिये। उसी वक़्त मिरज़ा खुर्शेद ने एक माला लाकर सम्पादकजी के गले में डाल दी और । बोले -- सज्जनो, फ़िदवी ने अभी अपने पूज्य सदर साहब की शान में एक क़सीदा कहा है। आप लोगों की इजाज़त हो तो सुनाऊँ। चारों तरफ़ से आवाज़ें आयीं -- हाँ-हाँ, ज़रूर सुनाइए। ओंकारनाथ भंग तो आये दिन पिया करते थे और उनका मस्तिष्क उसका अभ्यस्त हो गया था, मगर शराब पीने का उन्हें यह पहला अवसर था। भंग का नशा मन्थर गति से एक स्वप्न की भाँति आता था और मस्तिष्क पर मेघ के समान छा जाता था। उनकी चेतना बनी रहती थी। उन्हें ख़ुद मालूम होता था कि इस समय उनकी वाणी बड़ी लच्छेदार है, और उनकी कल्पना बहुत प्रबल। शराब का नशा उनके ऊपर सिंह की भाँति झपटा और दबोच बैठा। वह कहते कुछ हैं, मुँह से निकलता कुछ है। फिर यह ज्ञान भी जाता रहा। वह क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी सुधि ही न रही। यह स्वप्न का रोमानी वैचित्र्य न था, जागृति का वह चक्कर था, जिसमें साकार निराकार हो जाता है। न जाने कैसे उनके मस्तिष्क में यह कल्पना जाग उठी कि क़सीदा पढ़ना कोई बड़ा अनुचित काम है। मेज़ पर हाथ पटककर बोले -- नहीं, कदापि नहीं। यहाँ कोई क़सीदा नयी ओगा, नयी ओगा। हम सभापति हैं। हमारा हुक्म है। हम अबी इस सबा को तोड़ सकते हैं। अबी तोड़ सकते हैं। सभी को निकाल सकते हैं। कोई हमारा कुछ नहीं कर सकता। हम सभापति हैं। कोई दूसरा सभापति नयी है। मिरज़ा ने हाथ जोड़कर कहा -- हुज़ूर, इस क़सीदे में तो आपकी तारीफ़ की गयी है। सम्पादकजी ने लाल, पर ज्योतिहीन नेत्रों से देखा -- तुम हमारी तारीप क्यों की? क्यों की? बोलो, क्यों हमारी तारीप की? हम किसी का नौकर नयी है। किसी के बाप का नौकर नयी है, किसी साले का दिया नहीं खाते। हम ख़ुद सम्पादक है। हम ' बिजली ' का सम्पादक है। हम उसमें सबका तारीप करेगा। देवीजी, हम तुम्हारा तारीप नयी करेगा। हम कोई बड़ा आदमी नयी है। हम सबका ग़ुलाम है। हम आपका चरण-रज है। मालती देवी हमारी लक्ष्मी, हमारा सरस्वती, हमारी राधा ... यह कहते हुए वे मालती के चरणों की तरफ़ झुके और मुँह के बल फ़र्श पर गिर पड़े। मिरज़ा खुर्शेद ने दौड़कर उन्हें सँभाला और कुर्सियाँ हटाकर वहीं ज़मीन पर लिटा दिया। फिर उनके कानों के पास मुँह ले जाकर बोले -- राम-राम सत्त है! कहिए तो आपका जनाज़ा निकालें। राय साहब ने कहा -- कल देखना कितना बिगड़ता है। एक-एक को अपने पत्र में रगेदेगा। और ऐसा-ऐसा रगेदेगा कि आप भी याद करेंगे! एक ही दुष्ट है, किसी पर दया नहीं करता। लिखने में तो अपना जोड़ नहीं रखता। ऐसा गधा आदमी कैसे इतना अच्छा लिखता है, यह रहस्य है। कई आदमियों ने सम्पादकजी को उठाया और ले जाकर उनके कमरे में लिटा दिया।

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1 Comments

fiza Tanvi

30-Jan-2022 04:47 PM

Bahut khob

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